प्रेस की गुणवत्ता का अब एक ही मानक है कि वह सत्ता पक्ष का गुणगान कितना अच्छा करता है। 2019 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के इंटरव्यू गुणवान के लिए देखे जाना चाहिए। आम कैसे खाते हैं ? पर्स रखते हैं या नहीं , आपके स्वभाव में यह फकीरी कहां से आई? गुणवत्ता के लिए नहीं चैनल या अखबार जितना दरबारी है वह रेटिंग और सब्सक्रिप्शन की होड़ में उतना ही बेहतर नंबर पर है। प्रेस की आजादी के मामले में दुनिया में भारत की स्थिति को देखें तो वह 180 देशों की सूची में 140 में स्थान पर है। ऐसा सिर्फ सरकार की वजह से नहीं हुआ है दर्शकों और पाठकों की वजह से भी हुआ है।
आप ट्विटर पर ही न्यूज़ चैनलों के एंकर और कई तरह के पद नाम वाले संपादकों के हैंडल का अध्ययन कीजिए। इनके टि्वटर हैंडल से लेकर प्रोग्राम के टाइटल तक आप देख ले महीनों एक सवाल नहीं मिलेगा। न्यूज़ रूम में ऐसे कई संपादक हैं जिन्होंने महीनों से कोई खबर नहीं की है लेकिन सुबह शाम सरकार की नीतियों में गुण खोज कर प्रधानमंत्री को बधाई देते रहते हैं। इससे उनकी नौकरी और सुरक्षित हो जाती है। प्रधानमंत्री भी कुछ दिनों के बाद ऐसे पत्रकारों को फॉलो कर लेते हैं या उनके लिए उपलब्धि हो जाते हैं यही नहीं कुछ पत्रकारों ने ट्वीट करने लगे कि आपने हमें फॉलो नहीं किया सरकार और पत्रकार आपस में लाइक्स और फॉलो बांट रहे हैं यह नए दौर की रेवङिया है महत्वपूर्ण बने रहना ही सबसे बड़ी चुनौती है।

भारत का एक प्रमुख चैनल बताता है कि 2019 का विश्व कप भारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किस्मत के कारण जीतने वाला है। न्यूज़ एंकर की आवाज गूंज रही है वह लाखों घरों में पहुंचते हुए चर्चाओं का विषय हिस्सा बन जाती है। ठीक उसी वक्त और भी खबरें हैं जिन्हें प्रधानमंत्री की किस्मत से नहीं होनी चाहिए थी जैसे की अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट और रिकॉर्ड स्तर पर रोजगार की घटना, बिहार के मुजफ्फरपुर में इंसेफलाइटिस से 140 से अधिक बच्चों का मर जाना, गुजरात में सीवर की सफाई करने के दौरान साफ सफाई कर्मियों का मर जाना गनीमत है। न्यूज़ एंकर ने इसके लिए प्रधानमंत्री की किस्मत को जिम्मेदार नहीं माना या इन मामलों में उनकी तरफ से हुए या नहीं हुए किसी हादसे पर कोई सवाल नहीं उठाया। न्यूज़ चैनलों को देखने वाले लोग सब देखते हुए चुप हो जाते हैं उन्हें पत्रकारिता का मतलब पता है मगर उन्होंने बेमतलब की पत्रकारिता से ही अपना रिश्ता जोड़ लिया है। आखिरकार प्रधानमंत्री की किस्मत उस दिन किसी काम नहीं आए जिस दिन भारत अपना मैच हार गया और फाइनल में नहीं पहुंचा तो भी उनकी किस्मत के भरोसे चैनल और मौज कर रहे हैं। पत्रकारिता नहीं करते हुए भी पत्रकारिता का चेहरा बने हुए हैं। उनकी जवाबदेही समाप्त हो चुकी है बस शाम को टीवी पर आना है दो वक्ताओं को बुलाकर आपस में लड़ा देना है और असली खबरों को दबा देना है। अब इतना व्यापक हो चुका है कि इसमें नैतिकता और अनैतिकता के बिंदु खोजने का कोई मतलब नहीं रहा खराब पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी कमी नहीं थी। न्यूज़ चैनलों ने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या करने में जो मेहनत की उसी का नतीजा है कि अब भारत के लोग उन चैनलों को बगैर किसी सवाल के देखते हैं। जिनके यहां सरकार से कोई सवाल नहीं होता चैनलों ने अपने दर्शकों को एक खास तरह से टीवी देखने के लिए प्रशिक्षित कर लिया है नतीजा यह हुआ है कि अब वह ऐसे कार्यक्रम देखने के अभ्यस्त हो गए हैं जिनमें उनके हित को लेकर कुछ दिखाया नहीं जाता।

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देखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री जिन पत्रकारों को फॉलो करते हैं उनकी पिछले 5 सालों में किस तरह की रिपोर्टिंग रही है। उन्होंने ऐसा क्या रिपोर्टिंग की है जिसके कारण भारत के प्रधानमंत्री उन्हें फॉलो करते हैं ? वैसे भारत के प्रधानमंत्री उन लोगों को भी फॉलो करते हैं जो सोशल मीडिया पर लोगों को ट्रोल करते हैं। यह न्यूज़ एंकर भी तो सरकार के लिए लोगों को ट्रोल करते हैं। अपने कार्यक्रम में विपक्ष को ललकारते हैं हर शाम यह किसी लिबरल को खोजते हैं उनकी भाषा सुनिए सिर्फ और सिर्फ गुंडों और ट्रोल की भाषा है और कुछ नहीं। अब न्यूज़ रूम में कोई नहीं पूछता की खबर कहां है ? या इसमें खबर क्या है? रिपोर्टर का सिस्टम कुचल दिया गया जो बचे हैं अब संपादक बच्चे हैं जिनके नाम के आगे सीनियर ग्रुप एडिटर, ग्रुप एडिटर, सीनियर मैनेजिंग एडिटर, मैनेजिंग एडिटर, नेशनल एडिटर, पॉलिटिकल एडिटर, एसोसिएट एडिटर आदि लगा होता है। इसके अलावा भी कई तरह के एडिटर हो गए हैं अब एडिटर-एडिटर से कैसे पूछे की खबर क्या है? तुमने इतने दिनों से खबर क्यों नहीं की है? न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम का एक ही काम है डिबेट का पॉइंट जनता भी इसे ही पत्रकारिता समझने लगी है। वह भी कहती है कि हमारे यहां यह घटना हो गई इस पर डिबेट करा दीजिए अब वह नहीं कहती कि इस घटना की खबर करवा दीजिए। आम लोगों को तब तक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक वह खुद पीड़ित नहीं होते हैं जैसे ही वे प्रभावित होते हैं सबसे पहले उनकी नजर यही ढूंढती है कि यहां रिपोर्टर कौन है।

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2019 के लोकसभा चुनाव में जब मीडिया के स्पेस में सिर्फ एक पार्टी का बोलबाला था। उसी की खबरें थी और उसी का गुणगान था तब भी जनता को यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं लगा कि यह क्या हो रहा है ? भारत एक विशाल और महान लोकतंत्र है तो उस के सबसे बड़े प्रतीक मंच मीडिया में विपक्ष को क्यों गायब किया जा रहा है एक तरफा कवरेज के इस दौर में आप चुनाव आयोग से भी उम्मीद नहीं कर सकते खुद चुनाव आयोग पर एक तरफा होने के आरोप लग रहे हैं।

जुलाई 2019 में रेलवे के कई जोन में हड़ताली हुई हजारों की संख्या में कर्मचारियों ने हिस्सा लिया जब मीडिया ने कवरेज नहीं किया तो कर्मचारी व्हाट्सएप ग्रुप मैसेज घुमाने लगे जिस में यही लिखा था कि मीडिया बिक चुका है इसके पहले वही कर्मचारी उसी बिके हुए मीडिया के नियमित ग्राहक थे अब जब उनकी खबर का कवरेज नहीं हुआ तो मीडिया बिका हुआ नजर आया दरअसल मुख्यधारा के मीडिया ने आम लोगों की यही हालत कर दी वह अपनी त्रासदी का वीडियो बनाकर खुद ही देखता रह जाता है।

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पत्रकारिता अब मुश्किल हो गई है पहले पत्रकार कहते थे कि 9 से 5 की नौकरी नहीं करनी थी इसलिए इस क्षेत्र में आया अब यह सिर्फ नौकरी होकर रह गई है न्यूज़ रूम से साहस के पोषक तत्व रोज कम होते जा रहे हैं विटामिन डी सिर्फ शरीर में ही नहीं सोच में भी कम हो गया है पत्रकारों को निकाला जा रहा है उनकी आर्थिक सुरक्षा खतरे में है अखबारों और चैनलों को सरकार विज्ञापन रोककर सजा दे रही है वैसे उन अखबारों को भी इस बात की खबर नहीं है कि सरकार ने विज्ञापन देना बंद कर उन्हें दंडित किया है उनकी यह खबर दूसरी वेबसाइटों पर छप रही है जो मुख्य धारा की तरह नहीं होना चाहती मीडिया संस्थानों का हाल अच्छा है गला रेता जा रहा है और गाना गाया जा रहा है।

1949 ईस्वी में जॉर्ज ऑरवेल ने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास 1984 लिखा था। उपन्यास में किरदार है जो हर छपी हुई चीज से पुराने शब्दों और नारों को मिटा रहा है जैसे हमारे देश में नेहरू और गांधी को लेकर कितने इस संदर्भ और स्मृतियां मिटा दी गई है उपन्यास में हर जगह एक टेलर स्क्रीन लगा है जिसके जरिए कोई बिग बॉस आम नागरिकों पर नजर रखता है और उसी टेलियर स्क्रीन से खबरों की घोषणा होती है आज हमारे फोन और टीवी स्क्रीन हमें नियंत्रित करने के नए औजार हैं सैकड़ों चैनल है सभी से एक ही घोषणा होती है एक ही मुद्दे पर चर्चा होती है न्यूज़ तंत्र के जरिए नागरिकों के नियमित ड्रिल कराई जा रही है और उन्हें रोबोट में तब्दील करने की प्रक्रिया जारी है प्रधानमंत्री भले कहे कि लोकतंत्र में यही एक काम नहीं है की खबर छपती है कि नहीं सकती लेकिन लोकतंत्र की कल्पना में सूचना और उसकी पवित्रता बेहद जरूरी है भले ही लोग प्रधानमंत्री से सहमत हूं लेकिन जब वे अपने सवालों से गिरते हैं और जवाबदेही और जिम्मेदारी की जरूरत महसूस करते हैं तब उस क्षण वे जिस प्रेस की कल्पना करते हैं वह वही प्रेस है जिसके बारे में हम कुछ पत्रकार बात करते हैं वह पहले भी आदर्श रूप में नहीं था अब तो उसके करीब भी नहीं है लेकिन जब आप अपने पेंशन बच्चों की फीस किसी नाइंसाफी के लिए प्रेस को ढूंढते हैं तो एक बार तो कहते ही हैं कि मीडिया बिक गया है इसका मतलब है कि आपके भीतर भी मीडिया की वह अपवित्र समझ अभी तक बाकी है जिसे मैं बड़ा होते देखना चाहता हूं बस आप खुलकर नहीं कह रहे हैं कि हमें बिका हुआ मीडिया नहीं चाहिए न्यूज़ चैनल हो या अखबार हो उनके न्यूज़ रूम में सरकार का साया घूमता रहता है कई सालों से उन्होंने सरकार से सवाल करना बंद कर दिया प्रधानमंत्री से पूछे गए सवालों का मजाक उड़ता है लेकिन जनता एक बड़ा वर्ग अब उन्हें सही सवाल समझने लगा है आम कैसे खाते हैं पर्स रखते हैं या नहीं आपके स्वभाव में यह फकीरी कहां से आई यह वह सवाल है जो 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान फिल्मी सितारे और सेलिब्रिटी गीतकार द्वारा पूछे गए उस देश में जहां गैर बराबरी और भेदभाव के बीच स्वाभिमान से जीने मरने की हजारों चुनौतियां हैं उनसे जुड़े अनेक जरूरी सवाल है तो भी आम कैसे खाते हैं जैसे सवाल वाले इंटरव्यू प्रसारित होते हैं देखे जाते हैं कहीं कोई उल्लेखनीय विरोध नहीं होता इसलिए जब वित्त मंत्रालय ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों को बगैर अपॉइंटमेंट के अंदर आने से मना किया तो भी कोई हंगामा नहीं हुआ।

क्या 2019 का जनादेश पत्रकारिता को लेकर उठे सभी सवालों के खिलाफ भी था इसका अंतिम जवाब तो नहीं है लेकिन लगता है कि जनता ने पत्रकारिता की आजादी के सवाल को महत्व नहीं दिया उसके लिए पत्रकारिता का बिग जाना और किसी पत्रकार का मिट जाना कोई बड़ी बात नहीं है किसी भी लोकतंत्र में सरकार का मूल्यांकन आप दिखते हुए प्रेस से नहीं कर सकते लेकिन भारत में किया जा रहा है इस सवाल का जवाब अभी बाकी है प्रेस की आजादी का सवाल किसका है दो चार पत्रकारों का यह पूरे समाज का भले ही सत्ता के गलियारों में होने वाले सौदेबाजी में प्रेस की आजादी का सवाल खत्म हो जाए लेकिन एक दिन यह सवाल जनता के लिए रोजी-रोटी का सवाल बन कर आएगा जब तक इंसान को भूख का एहसास है बोलने की बेचैनी है तब तक वह जानने की छटपटाहट में रहेगा आज लोग सुन पड़े हैं कल जागेंगे तब पूछे गे कि भारत का लोकतंत्र महान कैसे हो सकता है जब उसका मीडिया गुलाम की तरह बर्ताव करता है पत्रकारों के बीच में न्यूज़ एंकर गुंडे की तरह बात करते हैं।

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