सावरकर ने अंग्रेजों को 6 बार भेजा था माफीनामा, तब जाकर हुई थी रिहाई

वीडी सावरकर…किसी के लिए हीरो हैं, तो कई के विलेन। आजादी से लेकर अब तक प्रासंगिक हैं। गाहे-बगाहे सुखियों में भी रहते हैं। भारत में उन्हें हिंदुत्व का जनक बताया जाता है। BJP उन्हें राष्ट्रभक्त मानती है, जबकि विपक्ष विरोध करती है। अक्सर एक सवाल पर विवाद उठता है कि क्या उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी? इस पर कई मत हैं। समर्थक कहते हैं कि अंग्रेजों के सामने नम्र पड़ना जेल से रिहा होने के लिए उनकी महज एक रणनीति थी, जबकि आलोचक धड़ा इस पर उन्हें कायर करार देता है। आइए, जानते हैं उनसे जुड़ी रोचक घटनाएंः

25-25 साल की दो अलग-अलग हुई थीं सजाएंः विनायक दामोदर सावरकर को 1910 में नासिक कलेक्टर की हत्या के आरोप में लंदन से अरेस्ट कर लिया गया था। बाद में उन्हें भारत लाया गया था, जिसके बाद कोर्ट ने आठ अप्रैल 2011 को 25-25 साल की दो अलग-अलग सजा सुनाईं। चार जुलाई, 1911 को सजा काटने के लिए अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया गया। वह तब 28 साल के थे। अगर सजा काटकर जेल से जीवित लौटते तब, वह 78 साल की उम्र में रिहा होते।

इस शर्त पर किए थे रिहाः वहां जेल में रहते हुए उन्होंने छह बार अंग्रेजों को माफीनामा भेजा था। नौ साल 10 महीने की काला पानी की सजा काटने के बाद उन्हें रिहा किया गया था। 1921 में अंडमान से पुणे की यरवदा जेल भेज दिया गया था, जहां उन्होंने तीन साल तक सजा काटी थी। जेल रिकॉर्ड के मुताबिक, उन्हें ब्रिटिश हुकूमत से देश की स्वतंत्रता की लड़ाई छोड़ने की शर्त पर रिहा किया गया था।

जेलर तक सावरकर को कहते थे बड़े बाबूः ‘Savarkar: Echoes from a Forgotten Past’ किताब लिखने वाले विक्रम संपत के मुताबिक, “चूंकि, सावरकर वकील थे। लंदन में उन्होंने इसकी पढ़ाई की थी। उन्हें मालूम था कि जेल से छूटने के लिए क्या कानून के आयाम हो सकते हैं। सेल्युलर जेल में उनके साथ 100 से अधिक राजबंदी, जिनमें कई क्रांतिकारी भी थे। सावरकर उन सभी का एक तरह से प्रतिनिधित्व किया करते थे। शायद यही वजह थी कि उन्हें वहां कई साथी ‘बड़े बाबू’ पुकारा करते थे। जेलर भी इन्हें बड़ा बाबू कहा करते थे।”

क्या लिखते थे ‘माफीनामों’ में?: बकौल संपत, “सावरकर के खतों की माफीनामा के बजाय सामान्य याचिका कहना उचित होगा। सरकार राजबंदियों को जेल की ओर से बाहर जाने के लिए याचिका डालने का मौका देती थी। हालांकि, उसे स्वीकारा जाना या खारिज किया जाना, सरकार पर निर्भर करता था। सावरकर की ओर से बार-बार इन याचिकाओं में यही पूछा जाता था- हमारा स्टेटस क्या है, क्या हम राजबंदी हैं या फिर सामान्य कैदी हैं?”

राजबंदियों संग होता था भेड़-बकरियों जैसा सलूकः लेखक के अनुसार, जेल में राजबंदियों के साथ सामान्य कैदियों जैसा सलूक ही किया जाता था। परिवार को चिट्ठी लिखने या मिलने की इजाजत डेढ़ साल में एक बार मिलती थी। ब्रिटिश सरकार राजबंदियों से भेड़-बकरियों जैसा सलूक करती थी। कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात तेल निकवाया जाता था। कोड़े मारे जाते थे। अंग्रेज अफसरों की बग्घियां राजबंदियों से खिंचवाई जाती थीं।

यातनाओं पर ये सब लिख गए सावरकरः जेल में शौचालय जाने तक के लिए वक्त तय होता था। खाना भी बासी मिलता था। लोग जिसके चलते बीमार हो जाते थे। ऊपर से बीमार होने पर उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं भी नहीं मिल पाती थीं। नर्क यातना जैसे माहौल से छूटने के संदर्भ में सावरकर ने अपने मेमॉइर में लिखा है, “मैं सबसे (राजबंदियों) कहता था कि जो आपसे कहा या लिखाया (ब्रिटिश हुकूमत द्वारा) जाए, वह लिख दीजिए। बाहर आपको जो करना, रिहा होकर करिए।”

Input: Jansatta

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