“भाइयों और बहनों, मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं, 50 दिन. 30 दिसंबर तक मुझे मौका दीजिए, भाइयों-बहनों. अगर 30 दिसंबर की रात मेरी कोई कमी रह जाए, कोई मेरी गलती निकल जाए, कोई मेरा गलत इरादा निकल जाए, आप जिस चौराहे पर मुझे खड़ा करेंगे, मैं खड़ा होकर देश जो सज़ा करेगा, वह सज़ा भुगतने के लिए तैयार हूं…” प्रधानमंत्री के भाषण का यह टुकड़ा इसलिए शब्दश: लिख रहा हूं, क्योंकि सोशल मीडिया से लेकर सियासी लोगों की ज़ुबान पर कहीं से जूता आ गया है.

मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा, मैं तो फक़ीर हूं’, ‘वे मुझे मार डालेंगे, मुझे थप्पड़ मार देना’, ‘मुझे लात मार कर सत्ता से हटा देना’, ‘मुझे फांसी पर चढ़ा देना’, ‘मुझे उलटा लटका देना’, ‘मुझे चौराहे पर जूते मारना’…. ये सब मोदी क्यों बोलते हैं?

संसद में हो या संसद के बाहर किसी सरकारी कार्यक्रम में या किसी चुनावी रैली में या विदेशी धरती पर, सब जगह उनके भाषण की भाषा एक जैसी होती है जिसमें वे अपने विरोधियों पर कटाक्ष करने से नहीं चूकते हैं. कभी-कभी तो वे ऐसा करते हुए राजनीतिक शालीनता और प्रधानमंत्री पद की मर्यादा को लांघने से भी परहेज नहीं करते.

वैसे संसद हो या संसद के बाहर, भारतीय राजनीति में भाषा का पतन कोई नई परिघटना नहीं है. इसलिए इसका ‘श्रेय’ अकेले मोदी को नहीं दिया जा सकता. उनसे भी पहले कई नेता हो चुके हैं जो राजनीतिक विमर्श या संवाद का स्तर गिराने में अपना ‘योगदान’ दे चुके हैं. मोदी तो उस सिलसिले को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं.

ऐसा नहीं कि यह काम उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू किया हो, गुजरात में अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान भी कॉरपोरेटी क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से तैयार अपने राजनीतिक शब्दकोष का इस्तेमाल वे अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए बड़े मुग्ध भाव से करते रहे.

2007 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने ‘पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद’ पर अपने भाषणों में अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्टपति परवेज़ मुशर्रफ़ को तराज़ू के एक ही पलड़े पर रखते हुए ऐसा माहौल बना दिया था मानो विधानसभा का चुनाव नहीं बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच युध्द हो रहा हो.

उसी दौरान उन्होंने 2002 की भीषणतम सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के राहत शिविरों को ‘बच्चे पैदा करने के कारखाने’ और मुस्लिम महिलाओं को उस कारखाने की मशीन बताने जैसे बेहद घृणित बयानों से भी परहेज नहीं किया.

अपने ऐसे ही नफ़रत भरे ज़हरीले बयानों के दम पर मोदी तो गुजरात में हिंदू ह्रदय सम्राट बनने में कामयाब हो गए मगर गांधी और सरदार पटेल के गुजरात का भाईचारा और गौरवमयी चेहरा तहस-नहस हो गया. अपनी इसी नफ़रतपरस्त राजनीति और बड़े पूंजी घरानों के सहारे वे 2013 आते-आते भाजपा के पोस्टर ब्वॉय और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बन गए, लेकिन उनकी भाषा और लहज़े में गिरावट का सिलसिला तब भी नहीं थमा. शिमला की एक सभा में कांग्रेस नेता शशि थरुर की पत्नी के लिए उनके मुंह से निकली ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड’ जैसी भद्दी उक्ति को कौन भूल सकता है!

उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद कई लोगों को उम्मीद थी कि अब शायद उनकी राजनीतिक विमर्श की भाषा में कुछ संयम और संतुलन आ जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. शायद भीषण आत्ममुग्धता से ग्रस्त मोदी अपनी कर्कश भाषा और भाषण शैली को ही अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी और अपनी सफलता का सूत्र मानते हैं.

यही वजह है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके भाषिक विचलन में और तेजी आ गई. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्होंने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को नक्सलियों की जमात, केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट, एके 47 और उपद्रवी गोत्र का बताया. बिहार के चुनाव में तो उन्होंने नीतीश कुमार के डीएनए में भी गड़बड़ी ढूंढ़ ली.

मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले कभी देखने-सुनने और पढ़ने में नहीं आया कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी चुनाव में अपनी जाति का उल्लेख करते हुए किसी जाति विशेष से वोट मांगे हो, लेकिन मोदी ने बिहार के चुनाव में यह ‘महान’ काम भी बिना संकोच किया.

किसी सभा में उन्होंने अपने को पिछड़ी जाति का तो किसी सभा में अति पिछड़ी जाति का बताया. यहां तक कि एक दलित बहुल चुनाव क्षेत्र में वे दलित मां की कोख़ से पैदा हुए बेटे भी बन गए. इस समय उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में तो वे मथुरा (उत्तर प्रदेश) से द्वारका (गुजरात) का रिश्ता बताते हुए एक जाति विशेष को आकर्षित करने के लिए खुद को कृष्ण का कलियुगी अवतार बताने से भी नहीं चूक रहे हैं.

दरअसल, उत्तर प्रदेश के चुनाव में मोदी का हर भाषण राजनीतिक विमर्श के पतन का नया कीर्तिमान रच रहा है. मसलन एक रैली में उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के हर गांव में कब्रिस्तान तो है मगर श्मशान नहीं है, जो कि होना चाहिए. चुनाव को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने की भौंडी कोशिश के तहत वे यहीं नहीं रुके.

उन्होंने कहा कि सूबे के लोगों को अगर रमज़ान और ईद के मौके पर बिना रुकावट के बिजली मिलती है तो दीपावली और होली पर भी मिलनी चाहिए। मोदी अपने इन विभाजनकारी सस्ते संवादों पर आई हुई और लाई गई भीड़ के बीच बैठे अपने समर्थकों की तालियां भले ही बटोर लेते हो, लेकिन आमतौर पर इससे संदेश यही जाता है कि चुनावी बाज़ी जीतने के लिए व्याकुल प्रधानमंत्री का यह एक हताशा भरा बयान है.

इतिहास, विज्ञान और देश-दुनिया के बारे में प्रधानमंत्री के सामान्य ज्ञान का तो कहना ही क्या! बिहार के ही चुनाव में उन्होंने इतिहास की अतल गहराई में जाकर सिकंदर के बिहार पहुंचने की गाथा सुनाई थी और तक्षशिला को भी बिहार में ढूंढ़ निकाला था. भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सम्मेलन में इंसान की गर्दन पर हाथी का सिर बिठाने का विज्ञान भी वे समझा चुके हैं और यह भी बता चुके हैं कि पुष्पक विमान के रूप में हवाई जहाज का आविष्कार भी भारत भूमि पर हमारे पौराणिक कथा नायक बहुत पहले ही कर चुके हैं.

चुनावी रैलियों से अलग देश-विदेश में अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी मोदी की भाषाई दरिद्रता के दिग्दर्शन होते रहते हैं. याद नहीं आता कि विदेशी धरती पर जाकर अपने राजनीतिक विरोधियों को कोसने या उनकी खिल्ली उड़ाने का काम मोदी से पहले किसी और प्रधानमंत्री ने किया हो. कोई प्रधानमंत्री अपने कामकाज को लेकर आलोचना से परे नहीं रहा है, मोदी भी नहीं हो सकते. लेकिन विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी के फैसले से देशभर में फैली आर्थिक अफरा-तफरी और आम आदमी को हुई तकलीफों को लेकर जब उनकी चौतरफा आलोचना हुई तो जरा देखिए कि उन्होंने अलग-अलग मौकों पर किस अंदाज में और किस भाषा में उन आलोचनाओं का जवाब दिया…

उन्होंने कहा- ‘मुझ पर ज़ुल्म हो रहे हैं’, ‘मेरे विरोधी मुझे बर्बाद करने पर तुले हैं’, ‘मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा, मैं तो फक़ीर हूं’, ‘वे मुझे मार डालेंगे, मुझे थप्पड़ मार देना’, ‘मुझे लात मार कर सत्ता से हटा देना’, ‘मुझे फांसी पर चढ़ा देना’, ‘मुझे उलटा लटका देना’, ‘मुझे चौराहे पर जूते मारना’ आदि-आदि.

गौ रक्षा के नाम पर जब देशभर में कई जगह दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं हुई तो उन्होंने राज्य सरकारों को ऐसी घटनाओं पर सख्ती बरतने का निर्देश देने के बजाय बेहद भौंडे नाटकीय अंदाज में कहा- ‘मेरे दलित भाइयों को मत मारो, भले ही मुझे गोली मार दो.’ चापलूस मंत्रियों, पार्टी नेताओं, भांड मीडिया और फेसबुकिया भक्तों के समूह के अलावा कोई नहीं कह सकता कि यह देश के प्रधानमंत्री की भाषा है.

कितना अच्छा होता अगर मोदी भाषा और संवाद के मामले भी उतने ही नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते, जितने वे पहनने-ओढ़ने के मामले में हैं. एक देश अपने प्रधानमंत्री से इतनी सामान्य और जायज़ अपेक्षा तो रख ही सकता है. उनका बाकी अंदाज़-ए-हुक़ूमत तो एक अलग बहस की दरकार रखता ही है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here